रोमांस जिनका ओढ़ना-बिछौना था ...

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रेहान फजल
निसार अख्तर एक बोहेमियन शायर थे. अगर यह कहा जाए कि तरक्कीपसंद शायरी के स्तंभ कहे जाने के बावजूद वो बुनियादी तौर पर एक रूमानी लहजे के शायर थे तो शायद गलत नहीं होगा. वास्तव में रोमांस उनका ओढ़ना-बिछौना था. अंदाजा लगाइए, तीस के दशक के अलीगढ़ विश्वविद्यालय का क्या बौद्धिक कैलीबर रहा होगा जहां एक साथ जांनिसार अख्तर, सफिया मजाज, अली सरदार जाफरी, ख्वाजा अहमद अब्बास और इस्मत चुगताई जैसे दिग्गज पढ़ रहे हों.
जांनिसार अख्तर को जानना है तो उनकी ‘साथिन’ सफिया अख्तर के उनको लिखे खत पढ़िए या कृष्ण चंदर के लेख, जहां वो कहते हैं, ‘‘जांनिसार वो अलबेला शायर है जिसको अपनी शायरी में चीखते रंग पसंद नहीं हैं, बल्कि उसकी शायरी घर में सालन की तरह धीमी-धीमी आंच पर पकती है.’’
संगीतकार खय्याम कहते हैं कि जांनिसार में अल्फाज और इल्म का खजाना था. उनके अनुसार फिल्म रजिया सुल्तान में जांनिसार ने ऐ दिले नादां गीत के छह-छह मिसरों के लिए कम से कम कुछ नहीं तो सौ अंतरे लिखे होंगे. एक-एक गीत के लिए कई मुखड़े लिख कर लाते थे और ज्यादा वक्त भी नहीं लगता था उनको गीत लिखने में.
वो बहुत माइल्ड टोन में गुफ्तगू करते थे और अपने शेर भी उसी टोन में पढते थे. जांनिसार के जानने वाले कहते हैं कि वो मुशायरे के शायर नहीं थे. उनका तरन्नुम भी अच्छा नहीं था. फैज का भी यही हाल था. उनके मुंह से उनका कलाम सुननेवालों का जी चाहता था कि इन्हें कोई और पढ़े.
जांनिसार को बहुत नजदीक से देखनेवालों में शायर निदा फाजली भी हैं जो उनसे बहुत जूनियर जरूर थे लेकिन उन्होंने मुंबई में अपने संघर्ष के दिनों की बहुत सारी शामें उनके साथ बितायी थीं. उन्होंने बताया, ‘‘साहित्य में लगाव होने के कारण मैं जांनिसार के करीब आ गया था और मेरी हर शाम कमोबेश उनके ही घर पर गुजरती थी.’’ यह वो जमाना था जब जांनिसार के वक्त का ज्यादा हिस्सा साहिर लुधियानवी के यहां गुज़रता था.
अपने घर वो सिर्फ कपड़े बदलने आते थे. यूं भी वो रोजाना कपड़े बदलने व नहाने के शौकीन नहीं थे. निदा कहते हैं कि वो जांनिसार अख्तर के मुश्किल दिन थे. साहिर का सिक्का चल रहा था. साहिर को अपनी तन्हाई से बहुत डर लगता था. जांनिसार इस खौफ को कम करने का माध्यम थे जिसके एवज में वो हर महीने 2000 रुपये दिया करते थे. निदा कहते हैं कि ये जो अफवाह उड़ी हुई है कि वो साहिर के गीत लिखते थे, ये सही नहीं है. लेकिन वो गीत लिखने में उनकी मदद जरूर करते थे.
लेकिन इस दोस्ती का कोई भविष्य नहीं था. आखिरकार ये दोस्ती एक दिन दिल्ली के इंपीरियल होटल में टूट गयी और इसका सबब बना एक प्रेम त्रिकोण! साहिर की कई महिलाओं से दोस्ती हुआ करती थी. ये दोस्ती लवज़ी होती थी जो कभी भी अपने अंजाम तक नहीं पहुंचती थी. दिल्ली की एक मोहतरमा के साथ साहिर की दोस्ती थी.
हुआ यूं कि एक दिन जब साहिर शॉपिंग करके लौटे तो उन्हें जांनिसार हमेशा की तरह इंतजार करते नहीं मिले. पता चला कि उन मोहतरमा ने जांनिसार साहब को इनवाइट कर लिया था. साहिर को इतना गुस्सा आया कि वो उसी वक्त उन साहिबा के घर गये और तूतू-मैंमैं कर जांनिसार को वहां से वापस ले आये. उन्हें गालीगलौज की बात अच्छी नहीं लगी. जांनिसार ने देर रात अपना सामान उठाया और साहिर का होटल छोड़ दिया. उस दिन से जांनिसार के संबंध साहिर से खराब हो गए और यहीं से उनका रिवाइवल शुरू हुआ.
जांनिसार ने अपने दो बेटों जावेद और सलमान को अपनी पत्नी सफिया के हवाले कर मुंबई का रु ख किया. वो भी बहुत अच्छी लेखिका थीं. उन्होंने एक बार अपने पति को लिखा था, ‘‘जांनिसार, ज्यादा लिखना और तेजी से लिखना बुरा नहीं है, लेकिन मैं चाहती हूं कि तुम रु क-रु क के और थम-थम के लिखो.’’ असगर वजाहत ने सफिया के जांनिसार को लिखे खतों का हिंदी में अनुवाद किया है.
वो कहते हैं, ‘‘कल्पना कीजिए 1942-43 में एक मुसलमान जवान खातून किस कदर गहराई से अपने आपको, अपने रिश्ते को देखती है और एनालाइज़ करती है अपने माशरे को. इस स्तर की इंटेलेक्चुअल किस कदर बेपनाह, बेतहाशा मोहब्बत करने लगी जांनिसार से, उससे लगता है कि उनमें (जांनिसार में) ज़रूर कुछ रहा होगा.’’
सफिया के खतों में उनके बेटे जादू उर्फ जावेद अख्तर का काफी जिक्र है. जावेद अपना नाम रखे जाने की दिलचस्प कहानी बताते हैं, ‘‘अपनी शादी से पहले मेरे वालिद ने एक नज्म लिखी थी जिसका मिसरा था लम्हा लम्हा किसी जादू का फसाना होगा. शादी के बाद जब मैं आया तो अस्पताल में ही उनके किसी दोस्त ने सुझाया कि उस मिसरे पर मेरा नाम क्यों न जादू रख दिया जाए. मेरा नाम जादू ही रख दिया गया.’’
जादू से जावेद बनने की कहानी पर जावेद बताते हैं, ‘‘साल-डेढ़ साल तक मुङो इसी नाम से पुकारा गया. लेकिन जब स्कूल भेजने की बात आयी तो सवाल उठा कि क्या नाम लिखाया जाए. सब लोग जादू नाम सुन कर हंसेंगे तो अब्बा ने कहा कि भई अब तो जादू की आदत पड़ गई है, तो उससे ही मिलता नाम सोचो. तो इस तरह मेरा नाम जावेद पड़ा. आम तौर से लोगों के असली नाम पर पेट नेम बनता है. मेरे केस में पेट नेम से मेरा असली नाम पड़ा.’’
जावेद अपनी किताब तरकश में लिखते हैं कि उनकी उनके अब्बी जांनिसार से बगावत और नाराजगी थी.
लिखते हैं, ‘‘लड़कपन से जानता हूं कि चाहूं तो शायरी कर सकता हूं, मगर अब तक की नहीं है. ये भी मेरे बाप से शायद मेरी बगावत का प्रतीक है.1979 में पहली बार शेर कहता हूं. और ये शेर लिख कर मैंने विरासत और अपने बाप से सुलह कर ली है.’’ बाप से इस नाराजगी की झलक मिलती है जावेद अख्तर की लिखी फिल्म त्रिशूल में भी, जहां बाप और बेटे के बीच तनाव है, टकराहट है. जावेद अब इस नाराज़गी को दूसरी तरह से देखते हैं. वो कहते हैं, ‘‘असल में दूरियां गलतफहमियां पैदा करती हैं.’’
निदा कहते हैं कि एक बार अटल बिहारी वाजपेई ने उन्हें बताया था कि जांनिसार अख्तर ने उन्हें ग्वालियर में पढ़ाया था. उनके बारे में एक कहानी ये है कि जब वो अलीगढ़ में पीएचडी कर रहे थे तो एक बार उनके स्टोव का तेल खत्म हो गया. तब उन्होंने अपनी अधूरी पीएचडी की थीसिस जला कर चाय बनायी थी. उनके बारे में एक और कहानी मशहूर है कि मजाज ने अपनी बहन सफिया की जांनिसार से शादी के बाद उन्हें व्हिस्की की एक बोतल तोहफे में दी थी. बाद में उनकी मयख्वारी पर कई किस्से कहे गये.
जब तक लोग इश्क करेंगे जांनिसार की नज्में और नगमें होठों पर रहेंगे-आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो.. साया कोई लहराए तो लगता है कि तुम हो..जब शाख़ कोई हाथ लगाते ही चमन में.. शर्माए लचक जाए तो लगता है कि तुम हो..